| काव्य का मंचीय दोहन- हिन्दी में कविता पठन-पाठन तक 
			सीमित हो गयी हैं। काव्य का थोड़ा बहुत उपयोग कवि सम्मेलनों और गोष्ठियों 
			के माध्यम से जन सामान्य के बीच यदा-कदा होता हैं। आज की यह स्थिति 
			अत्यंन्त सोचनीय हैं। पीछे मुड़कर देखें तो हिन्दी काव्य की पैठ 
			जन-साधारण में थी। मीरा, तुलसीदास, सूरदास, रहीम आदि कवि जन-जन में अपनी 
			पैठ रखते थे। सभी गाये जाते थे। बीच में न जाने क्यों यह परम्परा 
			विलुप्त हो गई और हिन्दी काव्य जन सामान्य से दूर होता गया। आधुनिक काल 
			में रवीन्द्रनाथ ने इसे पुनर्जीवित किया। उन्होंने अपने गीतों को स्वयं 
			स्वरबद्ध कर गेय बनाया। आज सभी रवीन्द्र संगीत के कायल हैं।
 
 ऐसा नही है कि हिन्दी में ऐसी कोशिश नही की गई हो। निराला ने प्रयास 
			किये थे। शब्द स्वर सायुज्य की एक समस्या थी। अतिशय शास्त्रीयता के 
			आग्रह के कारण शब्द दबने लगे, जो कदापि काव्य के हित में न था। इसीलिए 
			किसी कवि ने अपनी रचनाओं को स्वरबद्ध करने का प्रयास नहीं किया। इससे 
			हिन्दी के गीतों को बड़ा नुकसान हुआ। हिन्दी गीत सामान्य जनों से दूर हो 
			गये। तुलसी के गीत सामान्य स्वरों में जब कोई हिन्दी भाषी गाता है तो 
			गायक और श्रोता दोनों अपने-अपने स्तर पर इसका उपभोग करते हैं। प्रश्न 
			हो सकता है कि वे सामान्य लोग तुलसीदास को कितनी गहराई से समझते हैं। 
			पर गाते-गाते और सुनते-सुनते लोग धीरे-धीरे अधिकाधिक समझने लगेंगे, यह 
			भी सत्य है।
 
 हिन्दी काव्य अपने वाद, अपवाद और विवादों के दौर से गुजरते हुए बहुत 
			विकसित है पर इसके पाठक अत्यंत सीमित हैं। यदि ये गेय बना दिये गये होते 
			तो आज हिन्दी काव्य की स्थिति कुछ दूसरी होती। इसीलिये साहित्य के लोगों 
			को छोड़कर प्रायः सभी हिन्दी भाषी फिल्म संगीत ही जानते हैं। ऐसी स्थिति 
			को देखकर 1952 में यह विचार आया कि क्यों न हिन्दी के साहित्यिक गीतों 
			को सरल मधुर सुर-तालों में बांधकर उसे गेय बनाया जाये। निराला के गीतों 
			से यह सफर शुरू हुआ। उनके गीत अतिशय संस्कृत निष्ठ शब्दयुक्त होने के 
			कारण गायकों द्वारा त्याज्य थे। उनका मानना था कि उनके गीत गाये ही नही 
			जा सकते। पर अब सभी मानते हैं, निराला के गीत न सिर्फ गेय हैं, बल्कि 
			सुमधुर भी हैं। हमारे सामने प्रेरणा के रूप में फिल्म संगीत की 
			ग्राह्मता का गुण तथा रवीन्द्र संगीत की मधुरता और गहराई थी। इन्हीं 
			बातों को ध्यान में रखकर हम आगें बढे। प्रयोग के तौर पर हमने बच्चों से 
			गीत गवाये। बच्चे हमारे आशय के एकदम उपयुक्त थे। इनकी ऊर्जा और उत्साह 
			हमारे काम की चीज़ थी। वे गीतों को सही उच्चारण एवं गीतों के रस और भाव 
			को यथा साध्य प्रस्फुटित करते थे। हमने अपना मानदण्ड निर्धारित कर रखा 
			था। स्वर, गीत की ध्वनि और मात्राओं के अनुगामी होंगे। हमने रागों की 
			शुद्धता के फेर में गीत की आत्मा को क्षति नही पहुंचायी। हां, हमने यह 
			ध्यान अवश्य रखा कि संगीत मधुर, सरल एवं कर्णप्रिय हो।
 
 अपने इस प्रयास का प्रतिफल भी हमें मिलने लगा। सैकड़ों बच्चे, किशोर, 
			तरुण, युवा सभी- निराला, प्रसाद, महादेवी, पंत, विद्यापति, जयदेव, 
			बिहारी, जायसी, देव आदि की रचनाओं को गाने और श्रोता भी मंत्रमुग्ध 
			होकर सुनने लगे। यह एक नया अनुभव था। एक श्रोता वर्ग तैयार हो रहा था। 
			हमारा प्रयोग सफल हो रहा था।
 
 अगले क्रम में इसे और अधिक संप्रेषणीय बनाने के लिये हमनें अनेक प्रयोग 
			किये। अभी तक काव्य, गायन के माध्यम से श्रवण तक सीमित था। अब इसे 
			चाक्षुस बनाने का उपक्रम किया। गीतों पर नृत्य प्रस्तुतियां तो होती है 
			परन्तु कवि के गीत के भाव के अनुसार नृत्य रचना दुरूह कार्य हैं। उस 
			समय शास्त्रीय नृत्य पर आधारित गीत हुआ करत थे, जिसे सामान्य कलाकारों 
			से प्रस्तुत कराना अत्यन्त कठिन कार्य था। काफी सोच विचार के बाद हमने 
			इसके लिए एक निधारित शैली बनाने की सोची, जिसे हमनें ‘काव्य नृत्य’ या 
			‘लयात्मक अभिनय' नाम दिया।
 
 1. कविता के भाव के अनुसार पात्रों का सृजन कर अथवा प्रस्तुत गीत के 
			अनुसार पात्र सृजित कर गीत की नृत्यमय प्रस्तुति की गई।
 2. अभिनय के चारों अंगो का (आंगिक, वाचित, आहार्य, एवं सात्विक) हमने 
			इन नृत्य प्रस्तुतियों में यथोचित प्रयोग किये। इन नृत्यों में 
			शास्त्रीय मुद्राओं का ज्ञान कलाकारों को देकर उनके माध्यम से भावों का 
			प्रकाशन किया गया। नृत्य के अन्य अंगहार, पद्चरण, ग्रीवा, चक्षु, 
			शिरोभेद आदि भी यथा स्थान प्रस्तुत होते थे।
 
 इतना सब होते हुए भी नवीन कलाकारों के लिये ये नृत्य सर्वथा सरल और 
			सार्थक होते थे। शास्त्रीयता के सभी नियमों का पालन करते हुए हमने सरल 
			शैली में नवीन कलाकारों के माध्यम से काव्यों को प्रस्तुत करना आरम्भ 
			किया। कभी काव्य की एकल प्रस्तुति, तो कभी काव्य को गीत और नृत्यमय 
			नाटिका में गूंथकर नृत्य नाटिका की प्रस्तुति शुरू की। यहां ध्यान देने 
			योग्य दो बातें हैं।
 ये ‘काव्य नृत्य’ या लयात्मक अभिनय काव्य को अधिक सम्प्रेषणीय बनाने के 
			उद्देश्य से हमने पूरी ईमानदारी के साथ प्रस्तुत किया है। इसमें काव्य 
			का सम्प्रेषण प्रमुख है, जबकि संगीत, नृत्य पीछे चलते है अतएव इसे 
			‘सहचर संगीत' भी माना जा सकता है। दूसरी बात यह है कि हमने जो नृत्य 
			नाटिकाएं प्रस्तुत की वह सभी पाश्चात्य आपेरा (OPERA) या ‘बेले‘ की 
			परिधि में नही आते। वास्तव में ये नृत्य से गीतमय पद्यात्मक नाटक है तथा 
			ये रूपकों के दस प्रकारों में एक या अधिक का सम्मिश्रण होता है।
 
 काव्य के नाटको के रूप मे प्रस्तुति के क्रम में काव्य का नाट्य 
			रूपांतरण, दृश्यबंध,नृत्य रचना, संगीत संयोजन एवं रचना, संवाद, वेश-भूषा, 
			चरित्र-चित्रण आदि नाट्य रचना एवं प्रस्तुति संबंधी विभिन्न संयोजना के 
			पूर्ण होने के बाद ही कोई प्रदर्शन हो पाता है । नाट्य के क्षेत्र में 
			हमने कई मौलिक एवं महत्वपूर्ण प्रयोग भी किये । जैसे दोहरा या तिहरा 
			अभिनय , अभिरंजित नाट्य प्रयोग आदि। धर्मवीर भारती की "कनुप्रिया" में 
			राधा का एकालाप था। वह अपने अतीत को स्मरण कर रही है। इस नृत्य नाटक 
			में दोहरे अभिनय के माध्यम से भूत और वर्तमान दोनों काल दर्शाये गये। 
			यह प्रयोग अत्यन्त सफल रहा। इससे मंच को सीढ़ीनुमा बनाकर सामने के आधे 
			भाग में वर्तमान एवं पीछे के आधे भाग में अतीत का एक साथ अभिनय किया 
			जाता हैं। हमारे मंच के पीछे का परदा सफेद होता हैं जिसमें छाया अभिनय 
			का भी काम ले सकते हैं। इस तरह एक ही साथ हम दो या तीन स्तरों की 
			मनोदशाओं, अर्थ आदि का अवलोकन कर सकते हैं।
 हमारे साधन अत्यन्त सीमित थे। जो हमारे लिए अभिशप नही वरदान सिद्ध हुआ। 
			हमारा मंच एकदम सादा और प्रभावी बन गया। सभी प्रयोग आवश्यकता की उपज 
			थे। हमने अपनी पूरी ऊर्जा, रचनात्मकता एवं निष्ठा से ये प्रयोग किये। 
			आज हम पाते है कि यह कितना उपयोगी और सार्थक है।
 कविता और केवल कविता के लिए समर्पित होकर अपनी सारी 
			गतिविधियां विगत 58 वर्गो से समर्पित की है। इसका समुचित प्रतिसाद भी 
			हमें मिला है। आज तक हमने भारतीय वांगमय के पुरातन से लेकर (कालीदास से 
			लोकर आज तक के) अधिकांश कवियों की रचनाओं का मंचन किया है। हमारे पास 
			आज लगभग 2000 गीत रचनाएं तथा 150 के लगभग गीत नाटिकाएं आदि प्रदर्शन के 
			बाद तैयार हैं। जिसकी संपूर्ण सूची ब्लाग में देखी जा सकेगी। |