किन्तु 12
वर्ष की उम्र में जयदेव नाटक में मंचावतरण के बाद उनकी रूचियां बदल गई
और वे नाटकों के दीवाने हो गये। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण पढ़ाई में
तो कोई व्यवधान नहीं पड़ा किन्तु उन्होंने कला और नाटकों के दीवानगी में
अपने भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं सोचा। यहां तक कि अपने परिवारिक
दायित्वों से विमुख ही रहे।
कला संगीत और नाटकों में
रूचि लेने वाले बालक मनीष दत्त जिनका वास्तविक नाम सुनील दत्त है,
ने 16
वर्ष की अल्पायु में
संकल्प लिया कि वे हिन्दी साहित्यिक गीतों को सरल और गेय बनाकर हिन्दी
समाज में प्रचारित करेंगे। बंगाली परिवार में जन्म लेने के कारण उनके
सामने गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का उदाहरण था। बांग्ला भाषी लोग
रवीन्द्रनाथ, काजी
नजरूल इस्लाम, डी.एल.
राय आदि कवियों की रचनाओं
को बड़े गर्व के साथ गाते थे जबकि हिन्दी कवियों की रचनाएं पोथियों और
कक्षा की चारदीवारी तक ही सीमित थी। यह विरोधाभास बालक मनीष को सालता
था इसीलिये उन्होंने संकल्पित होकर अपनी कल्पना को मूर्त रूप देना शुरू
किया। 1960 में
नाट्य भारती संस्था की स्थापना कर उन्होंने नाटक के साथ साहित्यिक
गीतों के कार्यक्रम शुरू किये। वे लगभग साधन विहीन थे,
फिर भी साथियो को जुटाकर
लोगो से चंदा इकट्ठा कर एक के बाद एक काव्य संगीत के कार्यक्रम करते
रहे। इस नये प्रयोग को लोगों ने खूब सराहा और अपना स्नेह लुटाया। धीरे-धीरे
उन्हें देखने,
सुनने वालों की संख्या भी बढ़ती गई। इस बीच उन्होंने महाप्राण निराला के
अपरा, नये पत्ते,
अणिमा,
बेला आदि पर नृत्य संगीत
रूपक प्रस्तुत किये।
अब तक उन्होंने स्वाध्याय
से, साहित्य संगीत
और नृत्य की बारीकियों को समझ लिया था। उनके द्वारा रचा गया संगीत न
सिर्फ मौलिक था अपितु सुगम,
मधुर और कर्णप्रिय भी
होता था। इसी बीच उन्होंने पहली बार 1973
में महादेवी वर्मा के
गीतों पर आधारित स्वकल्पित नृत्य नाटिका "तुम
मुझमें प्रिय"
का मंचन किया। इसके बाद
तो लोग मनीष के भीतर छिपे कलाकार से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके।
नगर के बुद्धिजीवियों ने ‘‘तुम
मुझमें प्रिय‘‘
नृत्य नाटिका की भूरि-भूरि
प्रशंसा की। 1975
में मनीष दत्त ने एक अभिनव मंचीय प्रयोग किया जिसे उन्होंने ‘‘अभिरंजित‘‘
नाट्य कहा। इस प्रयोग की
परिकल्पना बड़ी अद्भुत है। उन्होंने कला की उत्पत्ति अभिव्यक्ति और
प्रस्तुति की सहज प्रक्रिया को पकड़ा और सोचा कि एक ही परिकल्पना-
रंगो में चित्रकारी
द्वारा, नृत्य में
मुद्राओं और अंग संचालन द्वारा,
संगीत में स्वर और ताल
द्वारा तथा काव्य में शब्द द्वारा अभिव्यक्त होती है। अब यदि इन सभी
विधाओं को एक साथ गुम्फित कर प्रस्तुत किया जाए तो भाव की अभिव्यक्ति
सर्वाधिक होगी। इसमें कठिनाई सिर्फ चित्र विधा में थी जिसमें रंगों का
कोई सर्वमान्य कोड नहीं था। अनेक विशेषज्ञों से विचार विमर्श के बाद
विशेष रूप से डा0
शेखर भट्टाचार्य की पहल
पर मौलिक तीन रंगो की जीवन के संदर्भ में व्याख्या की गई। लाल रंग
उत्तप्त होने के कारण जीवन के उद्वेलित अवस्था को चित्रित करता है जैसे
क्रोध, हिंसा,
वासना,
युध्द आदि में। पीला रंग आरामदायक या सुखदायक गर्मी का
प्रतीक है और जीवन की सामान्य गति को चित्रित करता है,
नीला रंग शीतल होने के
कारण निर्वाण या मृत्यु का प्रतीक है। इन्हीं रंगो के सम्यक मिश्रण से
सभी रसों की रंगों की भाषा में व्याख्या की गई और इनके अमूर्त चित्र
बनाकर मंचन के दौरान पीछे के परदे में गीत के रस के अनुसार प्रयोग में
प्रक्षेपित किया गया। अभिरंजित नाट्य संबंधी विस्तृत विवरण काव्य संगीत
की पत्रिका पंचम पुरूष में देखा जा सकता है।
अब तक मनीष दत्त की दिशा
निश्चित हो चुकी थी और वे निरंतर हिन्दी के साहित्यिक गीतों को
स्वरबद्ध और नृत्यबद्ध कर प्रस्तुत कर रहे थे। उन्होंने प्रसाद,
पंत,
जायसी,
महादेवी,
निराला,
नीरज,
बच्चन आदि की अनेक रचनाओं
को प्रस्तुत किया था। 1977
में मनीष दत्त ने पंत जी
को अपने उद्देश्यों के बारे में पत्र लिखा और बताया कि उन्होंने
रश्मिबंध के कुछ गीतों को "विश्व
नीड़"
शीर्षक से संगीत नृत्य
रूपक बनाकर प्रस्तुत किया है। इसका उत्तर एक दिसम्बर 77
के पत्र में उन्होंने
दिया और मनीष दत्त के इस अभिनव प्रयास की प्रशंसा की (दृष्टव्य
पत्र धरोहर काव्य संगीत षष्टम पुरूष)।
वे इस पत्र को पाकर अत्यंत हर्षित हुए और महादेवी,
निराला और पंत जी की
रचनाओं को रिकार्ड कर महादेवी और पंत को सुनाने 28
दिसम्बर को इलाहाबाद
रवाना हुए। जब वे इलाहाबाद पहुंचे तो उन्हें पता चला कि पंत जी का
देहावसान हो गया है और आज ही उनकी अन्त्येष्टि हुई है। वे निराश हो गए।
शाम को निराला जी के सुपुत्र से मिलने दारागंज गये और अपना मंतव्य
उन्हें भी बताया और उनके साथ लंबी चर्चा हुई। उसी दिन दोपहर को लोक
भारती कार्यालय में प्रसाद जी के सुपुत्र रत्नशंकर प्रसाद से भी अनायास
उनकी भेंट हुई, जो
पंत जी की अन्त्येष्टि में शामिल होने आए थे। काव्य संगीत की परिकल्पना
की इस मौलिक योजना की आवश्यकता के महत्व को उन्होंने न सिर्फ समझा
अपितु बताया कि प्रसाद और निराला जी दोनों चाहते थे कि हिन्दी के
साहित्यिक गीतों का बांग्ला की तरह ही प्रचलन हो। दोनों ने अपने गीतों
को भी स्वरबद्ध किया था,
जिसकी स्वरलिपि प्रसाद
संगीत नामक पुस्तक में संग्रहीत है। 30
तारीख को प्रातः महादेवी
जी से मिलने उनके घर पहुंचे। देवी जी बंगले के बाहर ही टहलते हुए धूप
सेंक रही थी। परिचय के उपरांत उनसे मनीष ने इलाहाबाद आने का पूरा
वृत्तांत सुनाया और अपना मंतव्य भी बताया। महादेवी जी रो पड़ीं। कहा-"बाबू
! पन्त जी
होते तो तुम्हारी बड़ी मदद करते,
उनके गीत जब तुम लाये हो
तो सुनाओ। पंत जी के पांच गीत थे। पांचो गीतों को उन्होंने आंखे बंदकर
बड़ी शांति के साथ सुना और गीतों की समाप्ति पर पुनः कहा पंत जी ऐसा ही
कुछ चाहते थे कि हिन्दी में कोई साहित्यिक गीतों को स्वरबद्ध करे और
सुगम स्वर लय में बांधकर प्रस्तुत करें। हिन्दी समाज द्वारा इसे वैसे
ही गाया जाये जैसे बांग्ला समाज में रवीन्द्रनाथ और काजी नजरूल के गीत
गाये जाते हैं। इसके बाद मनीष दत्त ने महादेवी के गीत भी सुनाए। इन
गीतों को उन्होंने बड़े मनोयोग से सुना और उन्हें आशीर्वाद देते हुए
पूछा कि क्या वे इतना बड़ा कार्य अकेले कर पायेंगे?
उन्होंने सुझाव दिया कि
मनीष दत्त लौटकर एक संस्था गठित करें और संस्थागत रूप में अपने
अभिप्राय को धीरे-धीरे
साकार करने का प्रयास करें। इलाहाबाद से लौटकर मनीष दत्त ने महादेवी जी
के निर्देश और इच्छानुसार 3
जनवरी 1978
को ‘काव्य
भारती कला संगीत मंडल‘
की विधिवत स्थापना की।
काव्य भारती संस्थागत रूप में आगे बढ़ती रही तथा 1979
में खैरागढ़ संगीत
विश्वविद्यालय से संबद्ध होकर शास्त्रीय संगीत नृत्य का विद्यालय-
कला संगीत वीथिका की
स्थापना की और छात्र-छात्राओं
को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देकर गायन-वादन
और नृत्य की परीक्षा में उन्हें सम्मिलित कराने लगे। इससे एक फायदा
काव्य भारती को हुआ। शास्त्रीय संगीत की परीक्षा में भाग लेने वाले
इन्हीं छात्रों के सहयोग से काव्य भारती निरंतर कवियों की रचनाओं पर
नये-नये कार्यक्रम
देने लगी, इसमें
कालीदास से लेकर वर्तमान तक के कवियों का कालजयी काव्य शामिल था।
गायन,
नृत्य,
नृत्य नाट्य,
काव्य पाठ तथा काव्य
चित्रण आदि अलग-अलग
विधाओं पर अखिल भारतीय स्तर की प्रतियोगिताएं काव्य भारती द्वारा
प्रतिवर्ष की जाने लगी और इनमें लगभग 1500
प्रतियोगी विभिन्न
स्थानों से आकर भाग लेने लगे। 1983
में निराला,
मुकुटधर पांडेय आदि
कवियों की रचनाओं पर सुपर 8
मिमी चलचित्र का निर्माण
भी काव्य भारती ने किया। काव्य भारती द्वारा प्रस्तुत वर्षवार सूची
दृष्टव्य है। 1987
में काव्य भारती का ‘अमर
बेला‘ ग्रामोफोन
रिकार्ड तैयार हुआ। यह रिकार्ड आज भी आकाशवाणी के सीाी केन्द्रों से
प्रसारित किया जाता है। मनीष दत्त आज भी अपने प्रयासों में दिन-रात
लगे रहते है। जैसा कि हम पहले बता चुके हैं कि उन्होंने अब तक लगभग
हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के 2000
गीत स्वरबद्ध किये हैं।
उनका संगीत एक अनूठा संगीत है जो अपनी अलग पहचान रखता है। गीतों पर
नृत्य भी शैली-बद्ध
ढंग से किया जाता है,
जिसे
उन्होंने नृत्य न कहकर लयात्मक अभिनय कहा है। संगीत को काव्य संगीत तथा
नृत्य को लयात्मक अभिनय की विस्तृत व्याख्या काव्य संगीत पत्रिका के
छठवें पुष्प में की गई है।
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